
आधुनिकता के दौर में जहां परंपराएं अक्सर पीछे छूट जाती हैं, वहीं हिमालय की गोद में बसा एक छोटा-सा गांव पीणी आज भी श्रद्धा और आत्मानुशासन की एक अद्भुत मिसाल पेश करता है। श्रावण मास के पावन अवसर पर यहां की विवाहित महिलाएं निभाती हैं एक ऐसी परंपरा, जिसे सुनकर आप चौंक जरूर सकते हैं, लेकिन गांव वालों के लिए यह आस्था और आत्मशुद्धि का प्रतीक है।
यहां हर साल सावन में महिलाएं पाँच दिनों तक वस्त्र त्यागकर व्रत करती हैं। इस व्रत का नाम है “निर्वसन व्रत”, जो संयम, मौन और विरक्ति की पराकाष्ठा को दर्शाता है। इस अवधि में न केवल महिलाएं शरीर से संबंधित सभी श्रृंगारों और कपड़ों का त्याग करती हैं, बल्कि पति-पत्नी के बीच किसी भी प्रकार का संपर्क या संवाद तक वर्जित होता है।
अनूठी परंपरा की गहराई में छिपी दिव्यता
इस विलक्षण व्रत की जड़ें एक प्राचीन लोककथा में समाहित हैं। ग्रामवासियों की मान्यता के अनुसार, पुराने समय में गांव पर राक्षसों का आतंक था। वे सुंदर और सजी-संवरी स्त्रियों का अपहरण कर ले जाते थे। इसी संकट से गांव को मुक्त कराने प्रकट हुए ‘लाहुआ घोंड देवता’, जिन्होंने राक्षसों का संहार कर गांव को अभयदान दिया।
कृतज्ञता स्वरूप शुरू हुआ यह व्रत, जिसमें महिलाएं अपने सौंदर्य, श्रृंगार और सांसारिक आकर्षण का त्याग कर, देवता के प्रति समर्पण दर्शाती हैं। यह केवल धार्मिक नियम नहीं, बल्कि आत्मा की शुद्धि और शिव से संवाद का आध्यात्मिक प्रयास है।
व्रत से विमुखता को माना जाता है अशुभ संकेत
गांव में यह विश्वास भी गहराई से मौजूद है कि यदि कोई महिला इस परंपरा का पालन नहीं करती, तो उसे जल्द ही अशुभ समाचार या कोई दुर्घटना झेलनी पड़ती है। गांव में कई पीढ़ियों से ऐसी घटनाओं की कथाएं सुनाई जाती हैं, जिनमें व्रत-भंग करने पर असमय मृत्यु, बीमारी या आपदा का उल्लेख होता है।
पुरुषों पर भी संयम का विधान
केवल महिलाएं ही नहीं, इस अवधि में पुरुषों पर भी संयम का कड़ा अनुशासन लागू होता है। वे मांस-मदिरा का त्याग, शांत और संयमित व्यवहार, और देवता के प्रति समर्पण का पालन करते हैं। पूरा गांव पांच दिनों तक एक विशेष आध्यात्मिक अनुशासन में डूबा होता है, मानो शरीर नहीं, आत्मा ही बोल रही हो।